व्यक्ति सत्संगति से तीन वस्तुओं को-शरीर, शरीर का स्वामी या आत्मा तथा आत्मा के मित्र को- एक साथ संयुक्त देखता है, वही सच्चा ज्ञानी है। जब तक आध्यात्मिक विषयों के वास्तविक ज्ञाता को संगति नहीं होती, वे अज्ञानी हैं, वे केवल शरीर को देखते हैं, और जब यह शरीर विनष्ट हो जाता है, तो समझते हैं कि सब कुछ नष्ट हो गया। लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। शरीर के विनष्ट होने पर आत्मा तथा परमात्मा का अस्तित्व बना रहता है, और वे अनेक विविध चर तथा अचर रूपों में सदैव जाते रहते हैं। कभी-कभी संस्कृत शब्द परमेर का अनुवाद जीवात्मा के रूप में किया जाता है, क्योंकि आत्मा ही शरीर का स्वामी है और शरीर के विनाश होने पर वह अन्यत्र देहांतरण कर जाता है। इस तरह वह स्वामी है। लेकिन कुछ लोग इस परमेश्वर का अर्थ परमात्मा लेते हैं। प्रत्येक दशा में परमात्मा तथा आत्मा दोनों रह जाते हैं। वे विनष्ट नहीं होते। जो इस प्रकार देख सकता है, वही वास्तव में देख सकता है कि क्या घटित हो रहा है।  
जीव, अपना भौतिक अस्तित्व स्वीकार करने के कारण अपने आध्यात्मिक अस्तित्व से पृथक स्थित हो गया है। किंतु यदि वह यह समझता है कि परमेश्वर अपने परमात्मा स्वरूप में सर्वत्र स्थित हैं, अर्थात यदि वह भगवान की उपस्थिति प्रत्येक वस्तु में देखता है, तो वह विघटनकारी मानसिकता से अपने आपको नीचे नहीं गिराता, और इसीलिए वह प्रमश: वैकुण्ठ-लोक की ओर बढ़ता जाता है। सामान्यतया मन इंद्रियतृप्तिकारी कार्यों में लीन रहता है, लेकिन जब वही परमात्मा की ओर उन्मुख होता है, तो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान में आगे बढ़ जाता है। यह शरीर परमात्मा के निर्देशानुसार प्रकृति द्वारा बनाया गया है और मनुष्य के शरीर के जितने भी कार्य संपन्न होते हैं, वे उसके द्वारा नहीं किए जाते। मनुष्य जो भी करता है, चाहे सुख के लिए करे या दुख के लिए, वह शारीरिक रचना के कारण उसे करने के लिए बाध्य होता है।